*** ज़रूर है ***
ज़रूर है |
गुज़रता है वो ज़ब भी राह से मुड़के देखता ज़रूर है... |
उसकी गलियों से घर झाँकू तो पत्थर फेंकता ज़रूर है !
ख्वाबों में भी नहीं मिलती ज़मानत अब तो...
वो जुल्फों से बुने जाल फेंकता ज़रूर है !
और माँगू रहम की भीख तो वो भी नहीं मंज़ूर उसको...
हाँ, ज़ब भी ख़ुश होता है...सियासी रोटियाँ सेंकता ज़रूर है !
यूँ तो हमारे बीच जंग सदियों से ज़ारी है...
पर ये गुज़रा वक़्त कहता है... हम में एकता ज़रूर है !
अंधेरा उसके भीतर से निकलता ही नहीं क्योंकि...
वो झूठ की मिट्टी से सच्चा घर लेपता ज़रूर है !
और इस सच्चाई की गवाह तो ये दुनिया बरसों से है 'सुमीत'...
जो इसे ललकारता है...आख़िर में घुटने टेकता ज़रूर है !
✍️सुमीत सिवाल...
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