🌛🌝🐝 खिड़की 🐞🌝🌜
खिड़की |
मेरे कमरे की खिड़की से भी इक चंदा निकलता है...
शजर की मांद से जैसे कोई भंवरा निकलता है !
सदा रस बाँटता फिरता हूँ सब कलियों को मैं फिर भी...
मेरे हिस्से में आता है वो फल कड़वा निकलता है !
जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है...
इसे सच मान लूं तो ये भी एक सपना निकलता है !
तेरी उस सुर्ख रंगत में तो रंग देना मुझे क्योंकि...
यहाँ इक रंग के आगे रंग हर इक हल्का निकलता है !
अंधेरों से सजी शामों से जब सूरज निकलता है...
यहाँ इस भीड़ में चेहरों से फिर चेहरा निकलता है !
मैं थर-थर काँपने लगता हूँ जब चलता हूँ उस पुल पर...
मेरे कदमों से टकरा के तेरा दरिया निकलता है !
घड़ा भरते ही फूटेगा यहाँ , तब ही तो कहता हूँ...
नाम जपने से ही भीतर का हर कचरा निकलता है !
मैं फिर कहता हूँ जुड़ जाओ इसी संगत से तुम क्योंकि...
यहीं से ही " सुमीत " मुक्ति का इक रस्ता निकलता है !
✍️सुमीत सिवाल...
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